Friday, August 7, 2009

जुलाई की खुशबू

जुलाई हालांकि बीत गया है लेकिन खुशबू अभी आस-पास बनी हुई है। ये वो खुशबू है जो साल-दर-साल मैं इसी तरह महसूस करता रहा हूँ। मेरा जन्म बसंत ऋतु में हुआ लेकिन मैं सही मानों में सावन में ही पला और बड़ा हुआ। गर्मियां सामान्य रूप से नानी के घर ही गुज़रती थीं जैसा कि उन दिनों का रिवाज़ था और बड़ी जल्दी ख़तम हो जाती थीं। बड़ा परिवार होने की वजह से अमूमन गर्मियों में एक-दो शादी-ब्याह होते ही थे। रिश्तेदारों से भरे-पूरे नानी के घर में छुट्टियाँ कब ख़तम हो जाती थीं पता ही नहीं चलता था। जामुन, आम, करोंदे, अचार ( एक प्रकार का जंगली फल जिसमें से चारोली निकलती है ) खूब खाने को मिलते और मामा के साथ स्वीमिंग पूल का आनंद। लेकिन गर्मियों में खुशबू नहीं थी। खुशबू तो बसंत या फ़िर सावन में ही होती थी। ये दोनों मौसम ऐसे थे जब मैं अपने आप को प्रकृति के एक दम नज़दीक पाता था और सबसे खूबसूरत बात ये होती थी कि इन दोनों ही ऋतुओं में मेरा स्कूल मेरे इस अलबेंडेपन का अहम् हिस्सा होता था। वास्तव में इनमें एक नहीं बल्कि तरह-तरह की बहुत सी खुशबू होती थीं। सबका अपना अलग अंदाज़ और अपना रंग।

गर्मी की छुट्टियाँ ख़त्म होने पर स्कूल फ़िर से खुलते। सरकारी स्कूल ही चलन में थे। पाठ्यक्रम औ पाठ्यपुस्तकें बरसों तक बदलते नहीं थे। पुस्तकों के अंशों पर राजनीति नहीं होती थी और ग से गणेश पढ़ना-पढ़ाना साम्प्रदायिक नहीं माना जाता था। चूंकि किताबें एक किसम की ही होती थीं लिहाज़ा पीढ़ी-दर-पीढ़ी काम आती थीं। बड़े भाई-बहनों या चाचा-भुआओं से छोटे भाई-बहनों अथवा भतीजे-भतीजियों को किताब-कॉपियाँ विरासत में मिला करती थीं। ये एक सर्वमान्य प्रथा थी। नई किताबें खरीदना फिजूलखर्ची समझा जाता था। हाँ, कॉपियाँ ज़रूर नई लाई जाती थीं कंट्रोल और सहकारी दुकानों से। कुछ कॉपियाँ बाज़ार से खरीद ली जाती थीं। सरकारी किताबों के कागज़ और सावन की नम हवा के मेल से एक बेहद उम्दा खुशबू तैयार होती थी। नई और बड़ी कक्षा में जाने की खुशी इस खुशबू से दो गुनी हो जाती थी। बड़े होने पर जाना कि बहुत तरह के इत्र और सुगंधि मशहूर हस्तियों के नाम पर बनाए जाते हैं। थोड़े और बड़े होने पर इन में से कुछ को देखने और सूंघने का मौका भी मिला लेकिन यकीन मानें एक खुशबू से दूसरी में अन्तर पता नहीं चलता। सिर्फ़ नाम और बोतल की बनावट का अन्तर छोड़ दें तो सब एक सी। ऊपर से तुर्रा ये कि थोड़ा ज़्यादा छिड़काव हो जाए तो माथा चढ़ जाए।

खैर, अपन तो किताबों की खुशबू से सराबोर हो जुलाई की पहली तारीख को स्कूल चल पड़ते। सावन की बारिश से हरे-भरे हुए रास्ते में दूब बड़ी होकर असंख्य जीव-जंतुओं और कीड़े-मकोड़ों का आसरा बन जाती थी। जगह-जगह पडी हुईं आम की गुठलियों से फूटी कोपलें नन्हे पौधे का आकार लेने लगती थीं। इन गुठलियों को घिस कर उनका पपैया बनाते और उस को बजाते हुए स्कूल जाते। घिसी हुई आम की गुठलियों की महक, वाह !

पुवाड़ के लहराते पौधे चारों और ज़मीन को आच्छादित से कर लेते थे। गाजर घास की औकात तब उतनी नहीं थी और बरसात में पुवाड़ का इतराना स्वाभाविक था। मुझे ये तो नहीं पता कि अन्य स्थानों में पुवाड़ को क्या कहते हैं लेकिन वनस्पति विज्ञान में इसे कास्सिया टोरा के नाम से जाना जाता है। पूरे भारत में सहज सुलभ ये वनस्पति औषधीय गुणों से भरपूर होती है। मालवा के लोग इसकी भाजी यानि पत्तों की सब्ज़ी भी बनाकर खाते हैं। लहलहाते पौधों की एक ख़ास गंध होती थी और जब हम इसके बीच से लगभग ओझल हुई पगडण्डी से गुज़र कर स्कूल पहुँचते तो वह गंध हमारे तन-बदन से चिपक जाती थी। जिन्होंने पुवाड़ के पीले फूलों को देखा है उन्हें पता होगा कि इसमें पराग की पतली डंडियाँ होती हैं जो फूलों से बाहर झांकती दीखती हैं। इन्हीं डंडियों के बीच में एक हरी डंडी होती है जो कि फूल का स्त्री अंग होती है। इन हरी डंडियों से कलाई पर तरह-तरह की आकृतियाँ बनाना हमारा प्रिय शगल होता था। डन्डिकाओ को कलाई पे जमाकर अंगूठे से ज़ोर से दबाया जाता। थोड़ी देर में वही आकृति बन जाती। प्राकृतिक टेटू का अभिनव प्रयोग। ॐ उकेरना सबसे ज़्यादा पसंद किया जाता था।

नदी के पानी की गंध तो हर वक़्त वातावरण में बनी ही रहती थी। मेरे बहुत से दोस्त जिनमें ज्यादातर मुसलमान थे नदी किनारे बांस की "बंसी" में चारा फंसाए मछलियाँ पकड़ा करते। मैनें भी कई बार अपने दोस्तों के लिए केंचुए पकड़े जिन्हें वे मछलियों का चारा बनाते थे।

बेसन के भजिये यानि पकोड़े, मक्का के भुट्टों का कीस तथा मक्का के भुट्टे और नई, गीली मूमफलियों के सिकने की खुशबू। हुज़ूर इनपे तो दुनिया की तमाम खुशबू न्योछावर है। अब आप ही बताएं कोई क्यों न बावरा हो जुलाई की खुशबू में ?




Friday, April 10, 2009

या इलाही ये माज़रा क्या है ?

मन कल से बार-बार इलाही माता के चक्कर काट रहा है।
हनुमान जयंती पे लगभग सारा का सारा क़स्बा ही बड़े हनुमान जी के मन्दिर जाता था। बड़ी धूम रहती थी। क़स्बा यानि सीहोर की पुरानी बस्ती। सीहोर के तीन मुख्य हिस्से थे - क़स्बा, छावनी और गंज। हम लोग कस्बे में रहा करते थे। घर से इलाही माता पहुँचने के दो-तीन रास्ते थे पर मुझे नदी किनारे वाला रास्ता ज़्यादा पसंद था। वो थोडा लंबा ज़रूर था लेकिन कच्चे रास्तों, पगडंडियों और झाड़-झंकाड़ के बीच से होते हुए जाना बड़ा मजेदार होता था। सीवन नदी सही मानों में नदी नहीं थी। पंजाब-हरियाणा की नहरों की चौड़ाई उससे कहीं अधिक होती है। लेकिन हमारे लिए तो वोही नदी थी। इसी में हमने पजामे में हवा भर कर तैरना सीखा और यहीं भैंसों की पीठ पे खड़े हो गोते लगाये। इसी की मिट्टी से गणपति की प्रतिमाएँ बनाईं और सावन में इसी की धार में बहते हुए भुजरिया के दोने पकड़े।
इस सीवन नदी के ही एक छोर पर बड़े हनुमान जी का मन्दिर है। ये इलाका कुछ टीले नुमा है, टीले पे शीतला माता का पुराना मन्दिर है। नदी पे एक छोटा बाँध भी यहाँ बंधा हुआ है और इसके आगे क़स्बे की हद ख़त्म हो जाती है। यही इलाका इलाही माता के नाम से जाना जाता है।
अब मैं इसी में अटका हुआ हूँ कि इस नाम के माने क्या ? नदी के इस घाट पे ही ताजिये भी ठंडे किए जाते हैं इसलिए कर्बला भी ये ही है। मैंने तर्क भिड़ाने की कोशिश की कि कर्बला की वजह से "इलाही" और माता के मन्दिर का "माता" मिलाकर शायद इलाही माता बनाया गया हो लेकिन इससे ज़्यादा अपने पल्ले कुछ पड़ा नहीं। और सच कहूं तो तो ख़ुद अपन को ही कुछ जमा नहीं। पास ही ईदगाह भी मौज़ूद है पर इलाही का माता से संगम अपने लिए तो रहस्य ही है। ऐसा नहीं कि यह बात पहले कभी दिमाग में आई हो लेकिन, इतनी शिद्दत से तो कभी नहीं।
लेकिन जो बात ख़ास है वो ये कि माता के बुत की पूजा होने के बावज़ूद
भी "इलाही" वालों के लिये ये जगह हमेशा उतनी ही मुक़द्दस रही और माता के नाम में इलाही जुड़ने से कभी किसी माई के लाल का धर्म भ्रष्ट नहीं हुआ. इस देशमें ऐसी असंख्य चीज़ें, बातें, प्रतीक और बिंब हैं जिनसे हिन्दुस्तान की आत्मा बनती है. यहाँ सभी धर्म, संप्रदाय, वर्ग, समाज और जो भी नाम आप देना चाहें अपना वज़ूद अलग रखते हुए भी एक समग्र समाज की रचना करते हैं. ये तो हनुमान जयंती के बहाने और अपने बचपन की यादों के यूफोरिया में इस बिना बात की बात में मैने इतना कुछ लिख दिया वरना चप्पे-चप्पे पे इससे बड़ी मिसालें आप सब ने देखी हैं जो देश का ताना-बाना बुनती हैं. धर्म के नाम पर इस ताने-बाने को कोई क्या तोड़ पाएगा ? आप तोड़ने देंगे ?

Saturday, March 28, 2009

और इस बार दिनकर जी।
कहूं क्या, मेरी क्या बिसात, ख़ुद पढ़ें और गुनें। साथ में सालावाडोर डाली की कृति (१९६३) जो डीएनए की आकृति से प्रेरित है :



रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,
आदमी भी क्या अनोखा जीव है!
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,
और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है।

जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ?
मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते
और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी
चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते।

आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का
आज उठता और कल फिर फूट जाता है
किन्तु, फिर भी धन्य ठहरा आदमी ही तो?
बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है।

मैं न बोला किन्तु मेरी रागिनी बोली,
देख फिर से चाँद! मुझको जानता है तू?
स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी?
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू?

मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,
आग में उसको गला लोहा बनाता हूँ,
और उस पर नींव रखता हूँ नये घर की,
इस तरह दीवार फौलादी उठाता हूँ।

मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी
कल्पना की जीभ में भी धार होती है,
बाण ही होते विचारों के नहीं केवल,
स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।

स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे-
रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे,
रोकिये, जैसे बने इन स्वप्नवालों को,
स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे।

- दिनकर

Tuesday, March 24, 2009


आस्था के फ़ॉसिल्स
इच्छावर में मेरे पूर्वज रहा करते थे. पंडिताई से ही जीवन की गाड़ी चलती थी. मुझसे तीन पीढ़ी पहले तक यही हमारे कुटुम्ब की परंपरा रही. फिर शायद मेरे दादाजी के ज़माने से यह सिलसिला टूट गया और दादाजी और उनके भाई वहाँ से शहरों की ओर चले गये. इच्छावर छोड़ने की क्या वजह रही इसका कोई ठीक अंदाज़ा हमें नहीं है. पुरखों की कहानियाँ सुनाने को परिवार में सिर्फ़ एक दादी ही थीं लेकिन उन्हें भी बहुत थोड़ा ही पता था. मेरे पिता ने अपने पिता को नहीं देखा था. वे अबोध ही थे जब दादाजी स्वर्गवासी हुए. इसलिए अपने पूर्वजों के इतिहास की ज़्यादा जानकारी हमें नहीं है.

हमारे देश की रीत रही है कि हर परिवार, हर खानदान के कोई न कोई कुलदेवता/ कुलदेवी होते ही हैं. यह परंपरा हमें अपनी आदिम संस्कृति से जोड़ती है. हर आदमी अपनी जड़ों को जानना चाहता है. जानवर से इंसान बनने की प्रक्रिया में संबद्धता एक महत्वपूर्ण बात रही होगी ऐसा मेरा मानना है. संबद्धता यानि अपने को अपनी वस्तुओं, अपने लोगों, अपनी ज़मीन, अपने जानवरों से जोड़ने की ज़रूरत. इसके बगैर इंसान का सभ्य हो पाना मुझे नामुमकिन सा लगता है. मैं कोई मानव विज्ञानी तो नहीं लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि परिवार से कबीला और उसके बाद बस्ती के विकास की यह ज़रूरी शर्त है. कुनबे और उनके सदस्य आपस में मिलते रहें, उनमें भाई चारा क़ायम रहे इसलिए यह भी तय किया गया कि वक़्त वक़्त पे लोग अपने देवी-देवता के स्थान पर पूजा करें. उन्हें भोग लगाएँ और उनके प्रति आभार प्रकट करें.

इच्छावर के उस घर में रामदेव जी महाराज का एक चबूतरा है जिसे मालवा के लोग ओटला भी कहते हैं. रामदेव जी राजस्थान के एक जागीरदार थे और उन्हें पीर का दर्ज़ा प्राप्त है. पोखरण के पास रामदेवरा या रुणीजा में उनका स्थान है. रामदेव जी का हमारा कुलदेवता होने का अर्थ है कि हमारे पूर्वज राजस्थान से आए थे. बच्चों के शादी-ब्याह होने पर, उनके घर बच्चे होने पर और फिर बच्चों के मुंडन के लिए परिवार का इस ओटले पर इकट्ठा होना और बंधु-बाँधवों सहित रामदेवजी महाराज की पूजा करना अनिवार्य है. तो इसी परंपरा का निबाह करने के लिए हम भी इच्छावर पहुँचे - गार्गी के मुंडन के लिए.

इच्छावर के उस घर में आज भी हमारे कुटुम्ब का एक परिवार रहता है. ब्रज काकाजी यानि पं. बृजकिशोर शुक्ल रिश्ते में मेरे पिता के काका थे और उस परिवार के मुखिया. पूरे कुटुम्ब में वे ही एक व्यक्ति थे जिन्होने पंडिताई की परंपरा को अपनाया. गार्गी के मुंडन तक वो जीवित थे. यूँ तो मैं पहले भी कई बार इच्छावर गया था लेकिन उनके उनके पूजा घर में उस दिन पहली बार गया. बहुत सारे देवी देवताओं की कई छोटी बड़ी मूर्तियाँ वहाँ थीं. लेकिन जिन मूर्तियों ने अनायास मेरा ध्यान खींचा वे बेहद अनगढ़ सी, काले पत्थर की बनी हुई थीं. कुछ-कुछ शालिग्राम जैसी. मुझे कौतूहल हुआ. मैने काकाजी से पूछा " काकाजी ये कौन से भगवान हैं "? "नाग म्हराज" उन्होने पूरी श्रद्धा से जवाब दिया. मेरी उत्सुकता और बढ़ गयी - "नाग महाराज"? पूजा घर छोटी सी कोठरी थी जिसमें दिन में भी प्रकाश बहुत मद्धम था. मैं उन मूर्तियों को गौर से देखना चाहता था. मगर काकाजी नाराज़ ना हो जाएँ इसलिए कुछ झिझकते हुए मैने उन मूर्तियों को बाहर रोशनी में ले जाने की इजाज़त माँगी. लेकिन मेरी आशंका के विपरीत काकाजी सहर्ष उन्हें बाहर ले आए.

मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा. वे मूर्तियाँ कोई नाग देवता की नहीं थीं बल्कि कुछ समुद्री जीवों के फ़ॉसिल्स थीं. फ़ॉसिल्स माने गुज़रे ज़माने के जीव-जंतुओं या वनस्पतियों का पथराया हुआ रूप. जो लोग विज्ञान जानते हैं वे जानते हैं कि कई सदियाँ लग जाती हैं फ़ॉसिल बनने में. मेरी जिज्ञासा और बढ़ गयी. मैने पूछा " काकाजी, ये अपने यहाँ कैसे आईं ? " काकाजी ने उसी शांत भाव से उत्तर दिया " पता नी बेटा. कजन कब से पूजा होय है इनकी अपना यहाँ. अपना कोई बड़ा-बूढ़ा ही लाया था इनखे. कां से लाया था या भी कईं खबर नी."

मेरे सामने वैज्ञानिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण समय का एक प्रमाण था जिसे भोले-भाले लोग जाने कब से आस्था से पूजते आ रहे थे. मैं बहुत कुछ जानना चाहता था लेकिन काकाजी के मन को ठेस न लगे इसलिए चुप था. काकाजी की अनुभवी आँखें समझ गयीं थीं. मुझे कॅमरा संभालते देखा तो उन्होने खुद ही इजाज़त दे दी -" ले ले बेटा, फोटू ले ले" मेरे पास उस वक़्त एक साधारण सा ऑटो-फोकस कॅमरा था. लेकिन मैनें बिना वक़्त गवाँए फोटो ले लिए.

बात बेहद साधारण है लेकिन बड़ी गंभीर भी. रोचक भी और रोमांचक भी. वे मूर्तियाँ बेहद कीमती थीं उनके लिए भी जो उन्हें दैवीय मानते थे और उनके लिए भी जो फ़ॉसिल्स समझ रहे थे. मेरे मन में भी उस धरोहर को सहेजने की लालसा थी और उनके मन में भी. मुझे लग रहा था मानो उन फ़ॉसिल्स के ज़रिये ही सही अपने पुरखों की और ज़्यादा जानकारी जुटा पाऊंगा। जिस दरख्त की हम कोंपलें हैं शायद उस की जड़ों की गहराई का थोड़ा और अंदाजा हो सकेगा।

हमने देवताओं को फिर से पूजा में पधराया. मुंडन-संस्कार बड़े आनंद से हुआ. तमाम सगे-संबंधियों के बीच प्यार और आशीर्वाद के साथ.

छवि के मुंडन के लिए फिर एक बार इच्छावर जाना हुआ. वहीं रामदेवजी के ओटले पर. लेकिन अबकी बार काकाजी हमारे बीच नहीं थे. स्वाभाविक रूप से मैने उनके बेटे आनंद से नाग महाराज की उन मूर्तियों के बारे में पूछा. पता चला कि काकाजी के जाने के कुछ दिनों बाद ही वे मूर्तियाँ भी खंडित हो गयीं थीं, इसलिए उन्हें कोनाझिर के तालाब में ठंडा ( विसर्जित) कर दिया गया था. जिन "मूर्तियों" को हमारे पुरखों ने न जाने कब से सहेजा था उनके इस तरह न होने से मुझे बड़ा अजीब सा एहसास हुआ. हिंदू मानते हैं कि प्राण-प्रतिष्ठा के बाद मूर्ति पत्थर नहीं रह जाती, भगवान हो जाती है. सच है आस्था थी तो फ़ॉसिल भी भगवान थे. नहीं तो आस्था ही फ़ॉसिल बन जाती है.

Friday, March 20, 2009

फागुन

आगे कुछ लिखूं इसके पहले दिनेश शुक्ल जी की एक कविता पढ़ें और मन को फगुआ करें




कौन रंग फागुन रंगे

कौन रंग फागुन रंगे, रंगता कौन वसंत,
प्रेम रंग फागुन रंगे, प्रीत कुसुंभ वसंत।

रोम रोम केसर घुली, चंदन महके अंग,
कब जाने कब धो गया, फागुन सारे रंग।

रचा महोत्सव पीत का, फागुन खेले फाग,
साँसों में कस्तूरियाँ, बोये मीठी आग।

पलट पलट मौसम तके, भौचक निरखे धूप,
रह रहकर चितवे हवा, ये फागुन के रूप।

मन टेसू टेसू हुआ तन ये हुआ गुलाल
अंखियों, अंखियों बो गया, फागुन कई सवाल।

होठों होठों चुप्पियाँ, आँखों, आँखों बात,
गुलमोहर के ख्वाब में, सड़क हँसी कल रात।

अनायास टूटे सभी, संयम के प्रतिबन्ध,
फागुन लिखे कपोल पर, रस से भीगे छंद।

अंखियों से जादू करे, नजरों मारे मूंठ,
गुदना गोदे प्रीत के, बोले सौ सौ झूठ।

पारा, पारस, पद्मिनी, पानी, पीर, पलाश,
प्रणय, प्रकर, पीताभ के, अपने हैं इतिहास।

भूली, बिसरी याद के, कच्चेपक्के रंग,
देर तलक गाते रहे, कुछ फागुन के संग।

- दिनेश शुक्ल

Wednesday, March 18, 2009


जब स्वाति ने मुझे उकसाया या यूँ कहें कि प्रेरित किया कि आओ भैया ब्लॉग की दुनिया में आओ तो सोचा था कि चलो इसी बहाने फिर कुछ लिखना - पढ़ना हो जाएगा. ब्लोगर पे अकाउंट भी बना लिया. नाम रख दिया सृजन - लगा मित्रों को थोड़ा बुद्धिजीवी टाइप का लगेगा ( स्वाति ??). थोड़ा प्रभावशाली लगेगा. लेकिन जब लिखने बैठा तो सारी हवा निकल गयी. कुछ लिखते बना. बहुत बरस पहले एक सज्जन ने मेरी एक "रचना" सुनकर मुझसे पूछा था - तुम्हारी अपनी रचना है ? कुछ नया लिखते हो लगता है ? "हाँ !" अपनी तो छाती ही फूल गयी थी. क्या सही कहा, "अरे सिर्फ़ नया लिखते और सोचते ही नहीं बल्कि कुछ नया कर गुज़रने की भी ठान रखी है". - वो उम्र ही ऐसी थी. तब जीवन के माने कुछ और हुआ करते थे.
समय बीतता रहा. लिखना पढ़ना छूटता गया. हर पड़ाव पे चीज़ों के अलग मायने समझ आए, हर मंज़िल पे अपनी औकात अलग नज़र आई. जो बातें कभी बुरी थीं वे ही कभी अच्छी लगीं. जो लोग कभी अंतरंग थे वे ही असह्य हो गये. अंकल आइंस्टीन की थियरी ऑफ रेलेटिविटी का असली फंडा तो अब समझ रहा था. सब कुछ वोही है फिरभी कितना कुछ बदल गया. हम भी वही हैं फिर भी हम ही नहीं हैं ? बड़ा अजब है सब.

जी यानि नानी जी तो परम ज्ञानी हैं, उन्ही ने बताया - हम ने क्या रचा ? क्या हम कुछ रच सकते हैं ? शब्द यहीं थे, लिखने वालों ने यहीं से लिए. कथाएँ यहीं थीं उन्हीं से पुराण रचे गये. ईश्वर यहीं था, मनुष्य ने अपने अपने हिसाब से अपना अपना चोला उसे पहना दिया. नया क्या हुआ ?

लेकिन, फिर भी इस ब्लॉग का नाम तो सृजन ही रहेगा :

मुझमें जो कुछ अच्छा है सब उसका है,
मेरा जितना चर्चा है सब उसका है.

अध्यात्म कहता है - सब कुछ वोही है, सब कुछ वो ही था और सब कुछ वो ही रहेगा. विज्ञान समझाता है - सबकुछ यहीं है, सब कुछ यहीं था और सब कुछ यहीं रहने वाला है. हरेक की उत्पत्ति इसी सब में से हुई और अंत भी इस सब में ही होना है. फिर कैसा सृजन और किसका सृजन ?
सृजन है ! आख़िर इस "सब" का भी तो सृजन हुआ है. तो सृजन है और सिरजनहार भी.

उसी सिरजनहार की इस बेहद खूबसूरत सृष्टि का आनंद उठाने और अपना सब अपनों के साथ बाँटने के लिए - सृजन का सौन्दर्य सराहने के लिए -स्वागत है :

सब आर्य प्रवर सकते हैं, सब आर्येतर सकते हैं
इस मानवता के मंदिर में सब नारी नर सकते हैं
केवल प्रवेश उसका निषिद्ध जिस में मधु प्यास नहीं बाकी.
( बच्चन)