
आस्था के फ़ॉसिल्स
इच्छावर में मेरे पूर्वज रहा करते थे. पंडिताई से ही जीवन की गाड़ी चलती थी. मुझसे तीन पीढ़ी पहले तक यही हमारे कुटुम्ब की परंपरा रही. फिर शायद मेरे दादाजी के ज़माने से यह सिलसिला टूट गया और दादाजी और उनके भाई वहाँ से शहरों की ओर चले गये. इच्छावर छोड़ने की क्या वजह रही इसका कोई ठीक अंदाज़ा हमें नहीं है. पुरखों की कहानियाँ सुनाने को परिवार में सिर्फ़ एक दादी ही थीं लेकिन उन्हें भी बहुत थोड़ा ही पता था. मेरे पिता ने अपने पिता को नहीं देखा था. वे अबोध ही थे जब दादाजी स्वर्गवासी हुए. इसलिए अपने पूर्वजों के इतिहास की ज़्यादा जानकारी हमें नहीं है.
हमारे देश की रीत रही है कि हर परिवार, हर खानदान के कोई न कोई कुलदेवता/ कुलदेवी होते ही हैं. यह परंपरा हमें अपनी आदिम संस्कृति से जोड़ती है. हर आदमी अपनी जड़ों को जानना चाहता है. जानवर से इंसान बनने की प्रक्रिया में संबद्धता एक महत्वपूर्ण बात रही होगी ऐसा मेरा मानना है. संबद्धता यानि अपने को अपनी वस्तुओं, अपने लोगों, अपनी ज़मीन, अपने जानवरों से जोड़ने की ज़रूरत. इसके बगैर इंसान का सभ्य हो पाना मुझे नामुमकिन सा लगता है. मैं कोई मानव विज्ञानी तो नहीं लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि परिवार से कबीला और उसके बाद बस्ती के विकास की यह ज़रूरी शर्त है. कुनबे और उनके सदस्य आपस में मिलते रहें, उनमें भाई चारा क़ायम रहे इसलिए यह भी तय किया गया कि वक़्त वक़्त पे लोग अपने देवी-देवता के स्थान पर पूजा करें. उन्हें भोग लगाएँ और उनके प्रति आभार प्रकट करें.
इच्छावर के उस घर में रामदेव जी महाराज का एक चबूतरा है जिसे मालवा के लोग ओटला भी कहते हैं. रामदेव जी राजस्थान के एक जागीरदार थे और उन्हें पीर का दर्ज़ा प्राप्त है. पोखरण के पास रामदेवरा या रुणीजा में उनका स्थान है. रामदेव जी का हमारा कुलदेवता होने का अर्थ है कि हमारे पूर्वज राजस्थान से आए थे. बच्चों के शादी-ब्याह होने पर, उनके घर बच्चे होने पर और फिर बच्चों के मुंडन के लिए परिवार का इस ओटले पर इकट्ठा होना और बंधु-बाँधवों सहित रामदेवजी महाराज की पूजा करना अनिवार्य है. तो इसी परंपरा का निबाह करने के लिए हम भी इच्छावर पहुँचे - गार्गी के मुंडन के लिए.
इच्छावर के उस घर में आज भी हमारे कुटुम्ब का एक परिवार रहता है. ब्रज काकाजी यानि पं. बृजकिशोर शुक्ल रिश्ते में मेरे पिता के काका थे और उस परिवार के मुखिया. पूरे कुटुम्ब में वे ही एक व्यक्ति थे जिन्होने पंडिताई की परंपरा को अपनाया. गार्गी के मुंडन तक वो जीवित थे. यूँ तो मैं पहले भी कई बार इच्छावर गया था लेकिन उनके उनके पूजा घर में उस दिन पहली बार गया. बहुत सारे देवी देवताओं की कई छोटी बड़ी मूर्तियाँ वहाँ थीं. लेकिन जिन मूर्तियों ने अनायास मेरा ध्यान खींचा वे बेहद अनगढ़ सी, काले पत्थर की बनी हुई थीं. कुछ-कुछ शालिग्राम जैसी. मुझे कौतूहल हुआ. मैने काकाजी से पूछा " काकाजी ये कौन से भगवान हैं "? "नाग म्हराज" उन्होने पूरी श्रद्धा से जवाब दिया. मेरी उत्सुकता और बढ़ गयी - "नाग महाराज"? पूजा घर छोटी सी कोठरी थी जिसमें दिन में भी प्रकाश बहुत मद्धम था. मैं उन मूर्तियों को गौर से देखना चाहता था. मगर काकाजी नाराज़ ना हो जाएँ इसलिए कुछ झिझकते हुए मैने उन मूर्तियों को बाहर रोशनी में ले जाने की इजाज़त माँगी. लेकिन मेरी आशंका के विपरीत काकाजी सहर्ष उन्हें बाहर ले आए.
मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा. वे मूर्तियाँ कोई नाग देवता की नहीं थीं बल्कि कुछ समुद्री जीवों के फ़ॉसिल्स थीं. फ़ॉसिल्स माने गुज़रे ज़माने के जीव-जंतुओं या वनस्पतियों का पथराया हुआ रूप. जो लोग विज्ञान जानते हैं वे जानते हैं कि कई सदियाँ लग जाती हैं फ़ॉसिल बनने में. मेरी जिज्ञासा और बढ़ गयी. मैने पूछा " काकाजी, ये अपने यहाँ कैसे आईं ? " काकाजी ने उसी शांत भाव से उत्तर दिया " पता नी बेटा. कजन कब से पूजा होय है इनकी अपना यहाँ. अपना कोई बड़ा-बूढ़ा ही लाया था इनखे. कां से लाया था या भी कईं खबर नी."
मेरे सामने वैज्ञानिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण समय का एक प्रमाण था जिसे भोले-भाले लोग जाने कब से आस्था से पूजते आ रहे थे. मैं बहुत कुछ जानना चाहता था लेकिन काकाजी के मन को ठेस न लगे इसलिए चुप था. काकाजी की अनुभवी आँखें समझ गयीं थीं. मुझे कॅमरा संभालते देखा तो उन्होने खुद ही इजाज़त दे दी -" ले ले बेटा, फोटू ले ले" मेरे पास उस वक़्त एक साधारण सा ऑटो-फोकस कॅमरा था. लेकिन मैनें बिना वक़्त गवाँए फोटो ले लिए.
बात बेहद साधारण है लेकिन बड़ी गंभीर भी. रोचक भी और रोमांचक भी. वे मूर्तियाँ बेहद कीमती थीं उनके लिए भी जो उन्हें दैवीय मानते थे और उनके लिए भी जो फ़ॉसिल्स समझ रहे थे. मेरे मन में भी उस धरोहर को सहेजने की लालसा थी और उनके मन में भी. मुझे लग रहा था मानो उन फ़ॉसिल्स के ज़रिये ही सही अपने पुरखों की और ज़्यादा जानकारी जुटा पाऊंगा। जिस दरख्त की हम कोंपलें हैं शायद उस की जड़ों की गहराई का थोड़ा और अंदाजा हो सकेगा।
हमने देवताओं को फिर से पूजा में पधराया. मुंडन-संस्कार बड़े आनंद से हुआ. तमाम सगे-संबंधियों के बीच प्यार और आशीर्वाद के साथ.
छवि के मुंडन के लिए फिर एक बार इच्छावर जाना हुआ. वहीं रामदेवजी के ओटले पर. लेकिन अबकी बार काकाजी हमारे बीच नहीं थे. स्वाभाविक रूप से मैने उनके बेटे आनंद से नाग महाराज की उन मूर्तियों के बारे में पूछा. पता चला कि काकाजी के जाने के कुछ दिनों बाद ही वे मूर्तियाँ भी खंडित हो गयीं थीं, इसलिए उन्हें कोनाझिर के तालाब में ठंडा ( विसर्जित) कर दिया गया था. जिन "मूर्तियों" को हमारे पुरखों ने न जाने कब से सहेजा था उनके इस तरह न होने से मुझे बड़ा अजीब सा एहसास हुआ. हिंदू मानते हैं कि प्राण-प्रतिष्ठा के बाद मूर्ति पत्थर नहीं रह जाती, भगवान हो जाती है. सच है आस्था थी तो फ़ॉसिल भी भगवान थे. नहीं तो आस्था ही फ़ॉसिल बन जाती है.
बहुत सुन्दर..स्वागत है...
ReplyDeletekuch 8 ya 9 saal pahle papa ke koi mitra ghar par fossil laye the..tab didi aur main milkar kuch likha tha....
ReplyDeletepedh jo pathar bangaye
pakheru ke aasre kho gaye
badhti rahi thakan rahgiron ki
jhule jadh ho gaye bachcho ke
pedh jo pathar ho gaye
to hum kya hain
kya the???
aur
kya ho jayenge
आपका ब्लाग वाकई बहुत अच्छा है. इसे नियमित रूप से अद्यतन करते रहिये . हार्दिक बधाई .
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ....... आपका हिंदी ब्लॉग जगत में स्वागत है
ReplyDeleteबढ़िया लिखते हैं ..गाँव कस्बों में किसी वृक्ष के नीचे खैरमाई होती है ..गाँव का देवालय .जहाँ जो पत्थर रख दिया जावे वह आस्था का प्रतीक बन जाता है .. फासिल्स विशिष्ट तो दिखते ही हैं सो उन का स्थान वहाँ होना ही है
ReplyDeleteसच कहा आस्था ही सबकुछ है .................
ReplyDeleteसुन्दर लिखा है
आप सभी ने पसंद किया इस के लिए धन्यवाद. कोशिश करूंगा कि निरंतरता बनी रहे.
ReplyDeleteबहुत सुंदर…..आपके इस सुंदर से चिटठे के साथ आपका ब्लाग जगत में स्वागत है…..आशा है , आप अपनी प्रतिभा से हिन्दी चिटठा जगत को समृद्ध करने और हिन्दी पाठको को ज्ञान बांटने के साथ साथ खुद भी सफलता प्राप्त करेंगे …..हमारी शुभकामनाएं आपके साथ हैं।
ReplyDeleteAchchha laga ki pehli baat se tumne baat badhakar dur talak jaane ki sambhavnao ko vistaar diya varna kai achchhe prayason ke saath aksar trasdi ye hoti hai ki do-chaar kadamo ke baad dum tod dete hai. mujhe vishvaas hai.. pakka... tumhara jeevat itna kamzor nahi!! dost ki salah maane- prayaas ki nirantarta banaye rakkhe.. nirantarta ke saath parvartan bhi....mujhe khushi aur garv, dono hai ki mein bhi tumharee yatrao mein saath aur sakshi raha hoon. Lage raho MUNNABAHI...curcuit saath hai! twada---nad'da..
ReplyDeletenarayan, narayan
ReplyDeleteबहुत ही उम्दा लिखा है संजय, वास्तव में! आस्था के चिन्ह, चीन्ह चीन्ह ना होने पाए इसीलिए भारतीय संस्कृति में प्रतीकात्मकता का बोध होता है..जो कई बार बहुत दकियानूसी स्तर पे भी जा पहुँचता है और यही फिर कई बुद्धिजनों के क्षोभ का कारण भी हो जाता है..लेकिन यदि आस्था की बात की जाये और आत्मिक आनंद की,तो ये भ्रम नहीं, सत्य लगता है!
ReplyDeleteलगे रहिये जी...