गर्मी की छुट्टियाँ ख़त्म होने पर स्कूल फ़िर से खुलते। सरकारी स्कूल ही चलन में थे। पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकें बरसों तक बदलते नहीं थे। पुस्तकों के अंशों पर राजनीति नहीं होती थी और ग से गणेश पढ़ना-पढ़ाना साम्प्रदायिक नहीं माना जाता था। चूंकि किताबें एक किसम की ही होती थीं लिहाज़ा पीढ़ी-दर-पीढ़ी काम आती थीं। बड़े भाई-बहनों या चाचा-भुआओं से छोटे भाई-बहनों अथवा भतीजे-भतीजियों को किताब-कॉपियाँ विरासत में मिला करती थीं। ये एक सर्वमान्य प्रथा थी। नई किताबें खरीदना फिजूलखर्ची समझा जाता था। हाँ, कॉपियाँ ज़रूर नई लाई जाती थीं कंट्रोल और सहकारी दुकानों से। कुछ कॉपियाँ बाज़ार से खरीद ली जाती थीं। सरकारी किताबों के कागज़ और सावन की नम हवा के मेल से एक बेहद उम्दा खुशबू तैयार होती थी। नई और बड़ी कक्षा में जाने की खुशी इस खुशबू से दो गुनी हो जाती थी। बड़े होने पर जाना कि बहुत तरह के इत्र और सुगंधि मशहूर हस्तियों के नाम पर बनाए जाते हैं। थोड़े और बड़े होने पर इन में से कुछ को देखने और सूंघने का मौका भी मिला लेकिन यकीन मानें एक खुशबू से दूसरी में अन्तर पता नहीं चलता। सिर्फ़ नाम और बोतल की बनावट का अन्तर छोड़ दें तो सब एक सी। ऊपर से तुर्रा ये कि थोड़ा ज़्यादा छिड़काव हो जाए तो माथा चढ़ जाए।
खैर, अपन तो किताबों की खुशबू से सराबोर हो जुलाई की पहली तारीख को स्कूल चल पड़ते। सावन की बारिश से हरे-भरे हुए रास्ते में दूब बड़ी होकर असंख्य जीव-जंतुओं और कीड़े-मकोड़ों का आसरा बन जाती थी। जगह-जगह पडी हुईं आम की गुठलियों से फूटी कोपलें नन्हे पौधे का आकार लेने लगती थीं। इन गुठलियों को घिस कर उनका पपैया बनाते और उस को बजाते हुए स्कूल जाते। घिसी हुई आम की गुठलियों की महक, वाह !
पुवाड़ के लहराते पौधे चारों और ज़मीन को आच्छादित से कर लेते थे। गाजर घास की औकात तब उतनी नहीं थी और बरसात में पुवाड़ का इतराना स्वाभाविक था। मुझे ये तो नहीं पता कि अन्य स्थानों में पुवाड़ को क्या कहते हैं लेकिन वनस्पति विज्ञान में इसे कास्सिया टोरा के नाम से जाना जाता है। पूरे भारत में सहज

नदी के पानी की गंध तो हर वक़्त वातावरण में बनी ही रहती थी। मेरे बहुत से दोस्त जिनमें ज्यादातर मुसलमान थे नदी किनारे बांस की "बंसी" में चारा फंसाए मछलियाँ पकड़ा करते। मैनें भी कई बार अपने दोस्तों के लिए केंचुए पकड़े जिन्हें वे मछलियों का चारा बनाते थे।

बेसन के भजिये यानि पकोड़े, मक्का के भुट्टों का कीस तथा मक्का के भुट्टे और नई, गीली मूमफलियों के सिकने की खुशबू। हुज़ूर इनपे तो दुनिया की तमाम खुशबू न्योछावर है। अब आप ही बताएं कोई क्यों न बावरा हो जुलाई की खुशबू में ?