Friday, August 7, 2009

जुलाई की खुशबू

जुलाई हालांकि बीत गया है लेकिन खुशबू अभी आस-पास बनी हुई है। ये वो खुशबू है जो साल-दर-साल मैं इसी तरह महसूस करता रहा हूँ। मेरा जन्म बसंत ऋतु में हुआ लेकिन मैं सही मानों में सावन में ही पला और बड़ा हुआ। गर्मियां सामान्य रूप से नानी के घर ही गुज़रती थीं जैसा कि उन दिनों का रिवाज़ था और बड़ी जल्दी ख़तम हो जाती थीं। बड़ा परिवार होने की वजह से अमूमन गर्मियों में एक-दो शादी-ब्याह होते ही थे। रिश्तेदारों से भरे-पूरे नानी के घर में छुट्टियाँ कब ख़तम हो जाती थीं पता ही नहीं चलता था। जामुन, आम, करोंदे, अचार ( एक प्रकार का जंगली फल जिसमें से चारोली निकलती है ) खूब खाने को मिलते और मामा के साथ स्वीमिंग पूल का आनंद। लेकिन गर्मियों में खुशबू नहीं थी। खुशबू तो बसंत या फ़िर सावन में ही होती थी। ये दोनों मौसम ऐसे थे जब मैं अपने आप को प्रकृति के एक दम नज़दीक पाता था और सबसे खूबसूरत बात ये होती थी कि इन दोनों ही ऋतुओं में मेरा स्कूल मेरे इस अलबेंडेपन का अहम् हिस्सा होता था। वास्तव में इनमें एक नहीं बल्कि तरह-तरह की बहुत सी खुशबू होती थीं। सबका अपना अलग अंदाज़ और अपना रंग।

गर्मी की छुट्टियाँ ख़त्म होने पर स्कूल फ़िर से खुलते। सरकारी स्कूल ही चलन में थे। पाठ्यक्रम औ पाठ्यपुस्तकें बरसों तक बदलते नहीं थे। पुस्तकों के अंशों पर राजनीति नहीं होती थी और ग से गणेश पढ़ना-पढ़ाना साम्प्रदायिक नहीं माना जाता था। चूंकि किताबें एक किसम की ही होती थीं लिहाज़ा पीढ़ी-दर-पीढ़ी काम आती थीं। बड़े भाई-बहनों या चाचा-भुआओं से छोटे भाई-बहनों अथवा भतीजे-भतीजियों को किताब-कॉपियाँ विरासत में मिला करती थीं। ये एक सर्वमान्य प्रथा थी। नई किताबें खरीदना फिजूलखर्ची समझा जाता था। हाँ, कॉपियाँ ज़रूर नई लाई जाती थीं कंट्रोल और सहकारी दुकानों से। कुछ कॉपियाँ बाज़ार से खरीद ली जाती थीं। सरकारी किताबों के कागज़ और सावन की नम हवा के मेल से एक बेहद उम्दा खुशबू तैयार होती थी। नई और बड़ी कक्षा में जाने की खुशी इस खुशबू से दो गुनी हो जाती थी। बड़े होने पर जाना कि बहुत तरह के इत्र और सुगंधि मशहूर हस्तियों के नाम पर बनाए जाते हैं। थोड़े और बड़े होने पर इन में से कुछ को देखने और सूंघने का मौका भी मिला लेकिन यकीन मानें एक खुशबू से दूसरी में अन्तर पता नहीं चलता। सिर्फ़ नाम और बोतल की बनावट का अन्तर छोड़ दें तो सब एक सी। ऊपर से तुर्रा ये कि थोड़ा ज़्यादा छिड़काव हो जाए तो माथा चढ़ जाए।

खैर, अपन तो किताबों की खुशबू से सराबोर हो जुलाई की पहली तारीख को स्कूल चल पड़ते। सावन की बारिश से हरे-भरे हुए रास्ते में दूब बड़ी होकर असंख्य जीव-जंतुओं और कीड़े-मकोड़ों का आसरा बन जाती थी। जगह-जगह पडी हुईं आम की गुठलियों से फूटी कोपलें नन्हे पौधे का आकार लेने लगती थीं। इन गुठलियों को घिस कर उनका पपैया बनाते और उस को बजाते हुए स्कूल जाते। घिसी हुई आम की गुठलियों की महक, वाह !

पुवाड़ के लहराते पौधे चारों और ज़मीन को आच्छादित से कर लेते थे। गाजर घास की औकात तब उतनी नहीं थी और बरसात में पुवाड़ का इतराना स्वाभाविक था। मुझे ये तो नहीं पता कि अन्य स्थानों में पुवाड़ को क्या कहते हैं लेकिन वनस्पति विज्ञान में इसे कास्सिया टोरा के नाम से जाना जाता है। पूरे भारत में सहज सुलभ ये वनस्पति औषधीय गुणों से भरपूर होती है। मालवा के लोग इसकी भाजी यानि पत्तों की सब्ज़ी भी बनाकर खाते हैं। लहलहाते पौधों की एक ख़ास गंध होती थी और जब हम इसके बीच से लगभग ओझल हुई पगडण्डी से गुज़र कर स्कूल पहुँचते तो वह गंध हमारे तन-बदन से चिपक जाती थी। जिन्होंने पुवाड़ के पीले फूलों को देखा है उन्हें पता होगा कि इसमें पराग की पतली डंडियाँ होती हैं जो फूलों से बाहर झांकती दीखती हैं। इन्हीं डंडियों के बीच में एक हरी डंडी होती है जो कि फूल का स्त्री अंग होती है। इन हरी डंडियों से कलाई पर तरह-तरह की आकृतियाँ बनाना हमारा प्रिय शगल होता था। डन्डिकाओ को कलाई पे जमाकर अंगूठे से ज़ोर से दबाया जाता। थोड़ी देर में वही आकृति बन जाती। प्राकृतिक टेटू का अभिनव प्रयोग। ॐ उकेरना सबसे ज़्यादा पसंद किया जाता था।

नदी के पानी की गंध तो हर वक़्त वातावरण में बनी ही रहती थी। मेरे बहुत से दोस्त जिनमें ज्यादातर मुसलमान थे नदी किनारे बांस की "बंसी" में चारा फंसाए मछलियाँ पकड़ा करते। मैनें भी कई बार अपने दोस्तों के लिए केंचुए पकड़े जिन्हें वे मछलियों का चारा बनाते थे।

बेसन के भजिये यानि पकोड़े, मक्का के भुट्टों का कीस तथा मक्का के भुट्टे और नई, गीली मूमफलियों के सिकने की खुशबू। हुज़ूर इनपे तो दुनिया की तमाम खुशबू न्योछावर है। अब आप ही बताएं कोई क्यों न बावरा हो जुलाई की खुशबू में ?




Friday, April 10, 2009

या इलाही ये माज़रा क्या है ?

मन कल से बार-बार इलाही माता के चक्कर काट रहा है।
हनुमान जयंती पे लगभग सारा का सारा क़स्बा ही बड़े हनुमान जी के मन्दिर जाता था। बड़ी धूम रहती थी। क़स्बा यानि सीहोर की पुरानी बस्ती। सीहोर के तीन मुख्य हिस्से थे - क़स्बा, छावनी और गंज। हम लोग कस्बे में रहा करते थे। घर से इलाही माता पहुँचने के दो-तीन रास्ते थे पर मुझे नदी किनारे वाला रास्ता ज़्यादा पसंद था। वो थोडा लंबा ज़रूर था लेकिन कच्चे रास्तों, पगडंडियों और झाड़-झंकाड़ के बीच से होते हुए जाना बड़ा मजेदार होता था। सीवन नदी सही मानों में नदी नहीं थी। पंजाब-हरियाणा की नहरों की चौड़ाई उससे कहीं अधिक होती है। लेकिन हमारे लिए तो वोही नदी थी। इसी में हमने पजामे में हवा भर कर तैरना सीखा और यहीं भैंसों की पीठ पे खड़े हो गोते लगाये। इसी की मिट्टी से गणपति की प्रतिमाएँ बनाईं और सावन में इसी की धार में बहते हुए भुजरिया के दोने पकड़े।
इस सीवन नदी के ही एक छोर पर बड़े हनुमान जी का मन्दिर है। ये इलाका कुछ टीले नुमा है, टीले पे शीतला माता का पुराना मन्दिर है। नदी पे एक छोटा बाँध भी यहाँ बंधा हुआ है और इसके आगे क़स्बे की हद ख़त्म हो जाती है। यही इलाका इलाही माता के नाम से जाना जाता है।
अब मैं इसी में अटका हुआ हूँ कि इस नाम के माने क्या ? नदी के इस घाट पे ही ताजिये भी ठंडे किए जाते हैं इसलिए कर्बला भी ये ही है। मैंने तर्क भिड़ाने की कोशिश की कि कर्बला की वजह से "इलाही" और माता के मन्दिर का "माता" मिलाकर शायद इलाही माता बनाया गया हो लेकिन इससे ज़्यादा अपने पल्ले कुछ पड़ा नहीं। और सच कहूं तो तो ख़ुद अपन को ही कुछ जमा नहीं। पास ही ईदगाह भी मौज़ूद है पर इलाही का माता से संगम अपने लिए तो रहस्य ही है। ऐसा नहीं कि यह बात पहले कभी दिमाग में आई हो लेकिन, इतनी शिद्दत से तो कभी नहीं।
लेकिन जो बात ख़ास है वो ये कि माता के बुत की पूजा होने के बावज़ूद
भी "इलाही" वालों के लिये ये जगह हमेशा उतनी ही मुक़द्दस रही और माता के नाम में इलाही जुड़ने से कभी किसी माई के लाल का धर्म भ्रष्ट नहीं हुआ. इस देशमें ऐसी असंख्य चीज़ें, बातें, प्रतीक और बिंब हैं जिनसे हिन्दुस्तान की आत्मा बनती है. यहाँ सभी धर्म, संप्रदाय, वर्ग, समाज और जो भी नाम आप देना चाहें अपना वज़ूद अलग रखते हुए भी एक समग्र समाज की रचना करते हैं. ये तो हनुमान जयंती के बहाने और अपने बचपन की यादों के यूफोरिया में इस बिना बात की बात में मैने इतना कुछ लिख दिया वरना चप्पे-चप्पे पे इससे बड़ी मिसालें आप सब ने देखी हैं जो देश का ताना-बाना बुनती हैं. धर्म के नाम पर इस ताने-बाने को कोई क्या तोड़ पाएगा ? आप तोड़ने देंगे ?

Saturday, March 28, 2009

और इस बार दिनकर जी।
कहूं क्या, मेरी क्या बिसात, ख़ुद पढ़ें और गुनें। साथ में सालावाडोर डाली की कृति (१९६३) जो डीएनए की आकृति से प्रेरित है :



रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,
आदमी भी क्या अनोखा जीव है!
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,
और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है।

जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ?
मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते
और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी
चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते।

आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का
आज उठता और कल फिर फूट जाता है
किन्तु, फिर भी धन्य ठहरा आदमी ही तो?
बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है।

मैं न बोला किन्तु मेरी रागिनी बोली,
देख फिर से चाँद! मुझको जानता है तू?
स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी?
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू?

मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,
आग में उसको गला लोहा बनाता हूँ,
और उस पर नींव रखता हूँ नये घर की,
इस तरह दीवार फौलादी उठाता हूँ।

मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी
कल्पना की जीभ में भी धार होती है,
बाण ही होते विचारों के नहीं केवल,
स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।

स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे-
रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे,
रोकिये, जैसे बने इन स्वप्नवालों को,
स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे।

- दिनकर